Wednesday, November 13, 2019

The Maratha Empire

                        Dear students इस लेख में मैंने आसान भाषा में मराठा साम्राज्य को समझाया है। इस लेख को पढ़ें और share करें और हां मुझे comment में बताएं अगर यह आपके लिए मददगार था। नमस्कार मैं हूँ विनय चलिए कुछ नया सीखते है।

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                     मराठों के पहले महान नेता छत्रपति शिवाजी थे। मराठा 17 वीं सदी के उत्तरार्ध में प्रमुख बन गए। शिवाजी मराठों के भोंसले कबीले के थे। जीजा बाई और शाहजी भोंसले शिवाजी के माता पिता के थे। शिवाजी के शिक्षक दादाजी कोंडा देव तथा गुरु रामदास थे। शिवाजी जुन्नर के पास शिवनेर के किले में 19 फरवरी 1627 में पैदा हुऐ थे। उनके पिता अहमद नगर के निजाम शाही शासकों के तहत एक सैन्य कमांडर थे और बाद में बीजापुर के थे।
                     1665, शिवाजी ने अम्बेर के राजा जय सिंह जिसे औरंगजेब के द्वारा प्रतिनियुक्त किया गया था उसके साथ पुरंदर की संधि पर हस्ताक्षर किए। शिवाजी महाराज के दो पुत्र संभाजी और राजाराम थे। संभाजी महाराज शिवाजी महाराज के सबसे बड़े पुत्र थे। राजाराम संभाजी महाराज के छोटे भाई थे और वह सम्भाजी के उत्तराधिकारी थे।
                     शिवाजी द्वितीय राजाराम महाराज और रानी ताराबाई के पुत्र थे। राजाराम महाराज की मृत्यु के बाद ताराबाई ने अपने बेटे को ताज पहनाया और मराठा साम्राज्य का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया।
                      औरंगजेब की मृत्यु 3 मार्च, 1707 को हो गई जबकि ताराबाई उस समय भी सत्‍ता में थीं। औरंगज़ेब की मृत्यु के लगभग तीन महीने बाद संभाजी के बेटे साहू (जन्म 18 मई, 1682) जो 3 नवंबर, 1689 से मुगलों के कैद में थे, उन्हें 8 मई, 1707 को औरंगजेब के दूसरे बेटे आज़म शाह द्वारा मुक्त कर दिया गया और आगे जाकर आजम शाह ने बहादुरशाह-1 के तौर पर ताज पहना।
                      साहू की रिहाई के बाद ताराबाई के बलों और साहू के बीच एक गृहयुद्ध छिड़ गया। मराठा सेनापति धनाजी जाधव और दिवान बालाजी विश्वनाथ के समर्थन से साहू ने विषम परिस्थितियों में भी विजय प्राप्त की। साहू और ताराबाई की सेनाओं के बीच खेड़ा (12 अक्टूबर, 1707) के सुनिश्चित युद्ध में ताराबाई की सेना पराजित हो गई और जनवरी 1708 में साहू ने सतारा पर कब्जा कर लिया।
                    जनवरी 1708 में उनके राज्याभिषेक के अवसर पर साहू ने बालाजी विश्वनाथ को सेना-कर्ते (सेना के निर्माता ) का खिताब दिया और अंततः उन्हें 1713 में पेशवा जैसा उच्च पद भी दिया गया। पेशवा के रूप में बालाजी की नियुक्ति के साथ ही पेशवा का कार्यालय वंशानुगत बन गया तथा बालाजी और उनके उत्तराधिकारी मराठा साम्राज्य के वास्तविक शासक बन गए। यहां से आगे छत्रपति सिर्फ नाममात्र रह गए।

 बालाजी विश्वनाथ ( 1713-20 ) : 

                     बालाजी विश्वनाथ को मराठा राज्य का दूसरा संस्थापक कहा जाता है। बालाजी को "वित्त की महारत" का श्रेय दिया गया था। बालाजी ने सैय्यद भाइयों के साथ खुली प्रत्‍यक्ष वार्ता की और फरवरी 1719 में उनकी सभी मांगों को स्वीकार कर लिया गया।

पेशवा बाजीराव- (1720-40) :

                   बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उनके सबसे बड़े बेटे बाजी राव जो 20 साल के युवा थे, उन्‍हें साहु द्वारा पेहवा नियुक्त किया गया। उन्होंने मराठों के उत्तरार्द्ध विस्तार की नीति तैयार की ताकि "मराठा ध्वज कृष्णा से अट्टक तक लहरा" सके।
बाजी राव ने अपने घर की स्थिति सुधार के पश्‍चात् अंतत: भोपाल के निकट निजाम को हराया और दुरई सराय (जनवरी 1738) के सम्मेलन से पूरे पल्वा के लिए निजाम को पेशवा के समक्ष आत्मसमर्पण करने, नर्मदा और चंबल नदियों के बीच के क्षेत्र की संपूर्ण संप्रभुता को छोड़ने और युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में 50 लाख रुपये का भुगतान करने के लिए मजबूर किया।
इसने मालवा, बुंदेलखंड, बेसिन और गुजरात पर विजय प्राप्त की और सन् 1737 में गुजरात तक पहुंच गया।इन्होंने पूना को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया और इसे जल्द ही पेशवाओं की गद्दी के रूप में जाना जाने लगा।
बाजी राव ने अपनी जीत के माध्यम से मराठा साम्राज्य की स्थापना की लेकिन उन्होंने प्रशासनिक संगठन द्वारा इसे मजबूत नहीं किया।
पेशवा बालाजी बाजी राव (1740-61) : 
                  पेशवा बाजीराव का निधन 40 वर्ष की आयु में हो गया और उनके पुत्र बालाजी बाजी राव उनके उत्तराधिकारी बने जो अपनी संपूर्ण पेशवाशिप में अपने चचेरे भाई सदा शिव राव भाऊ की सलाह और मार्गदर्शन पर निर्भर रहे।

पानीपत का तीसरा युद्ध (14 जनवरी, 1761): मराठा साम्राज्य और दुर्रानी साम्राज्य( अफगानिस्तान ) के मध्य लड़ा गया। शामिल लोग: सदाशिवराव भाऊ (मराठा सेना के कमांडर-इन-चीफ), विश्वासराव, मल्हारराव होल्‍कर, अहमद शाह दुर्रानी (जिन्हें अहमद शाह अब्दाली भी कहते हैं)।

परिणाम: अफगानों की विजय। दुर्रानी को दोआब के रोहिल्ला और अवध के नवाज शुजा-उद-दौला से समर्थन मिला। मराठा राजपूतों, जाटों या सिक्‍खों से समर्थन प्राप्त करने में विफल रहे।
पेशवा माधव राव I (1761-72) :
                        बालाजी बाजी राव की मृत्यु के बाद उनके छोटे बेटे माधव राव को पेशवा के सिंहासन पर बैठाया गया। चूंकि नए पेशवा केवल 17 वर्ष के थे तो उनके चाचा रघुनाथ राव जो पेशवा के परिवार के सबसे उम्रदराज जीवित सदस्य थे वे उनके राज्‍य-संरक्षक बने और राज्य के वास्तविक शासक बन गए।
इस अवधि के दौरान पेशवा और उनके चाचा के बीच गंभीर मतभेद हुए जिसके परिणामस्वरुप सन् 1762 में दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें पेशवा सेना की हार हुई।
जनवरी 1771 में महादाजी सिंधिया ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और मुख्‍य राजपूत राजकुमारों से धन की मांग करने में सफल रहे, लेकिन नवंबर 1772 में माधव राव की अकाल मृत्यु ने मराठा प्रभुत्व को गहरे संकट में डाल दिया।
              माधव राव की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य का भाग्य और नारायण राव (1772-74), माधव राव नारायण (1774-95) और बाजीराव द्वितीय (1796-1818) के अधीन पेशवाओं की प्रतिष्ठा में तेजी से गिरावट आई। अंतिम पेशवा, बाजी राव द्वितीय खड़की के युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा पराजित हुए जो की तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818) का एक हिस्सा था।
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-82) : प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध का तत्काल कारण मराठों के आंतरिक मामलों में अंग्रेजों का हस्तक्षेप था। तत्कालीन मराठा पेशवा नारायण राव की मृत्य उत्तराधिकारी के बिना हो गई। नारायण राव के मरणोपरांत बेटे के जन्म ने रघुनाथ राव को हताशा से भर दिया और अंततः उन्होंने 1775 में बम्‍बई सरकार के साथ इस उम्मीद के साथ संधि पर हस्ताक्षर किए कि भविष्य में ब्रिटिश सैनिकों की मदद से वे मराठा सिंहासन को वापिस हासिल कर लेंगे।
सूरत की संधि से रघुनाथ राव ने सेल्सेट और बेसिन को सौंपने के साथ कंपनी के शत्रुओं के साथ गठबंधन न करने का वादा किया। पहले आंग्ल-मराठा युद्ध में दोनों पार्टियों में से किसी को भी कुछ भी हासिल नहीं हुआ और अंत में उन्हें संघर्ष की निरर्थकता का एहसास हुआ। सन् 1782 में सालबाई की संधि के साथ पहला आंग्ल-मराठा युद्ध समाप्त हुआ। सलबाई की संधि से मराठों के बीच शांति थी। इस संधि में अंग्रेजों ने मैसूर पर दबाव डालना आरंभ किया ताकि वे मराठों की मदद से हैदर अली के साम्राज्य को हासिल कर सके।
दूसरा आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1806) : पूना में दो चतुर राजनेताओं महादजी सिंधिया और नाना फडनवीस की मृत्‍यु के साथ ही महादजी सिंधिया, दौलत राव सिंधिया और जसवंत राव होलकर के बीच सत्ता के लिए उग्र प्रतिद्वंद्विता आरंभ हो गई। दोनों ही पूना में सिंहासन को रक्षित करने का प्रयास करने लगे। तदुपरांत, बाजी राव द्वितीय बेसिन से भाग गए और फिर अंग्रेजों के साथ एक सहायक गठबंधन पर हस्ताक्षर किए। बेसिन की संधि के तहत पेशवा ने सूरत शहर को सौंपने के साथ-साथ निजाम के वर्चस्व पर चौथ के दावे को भी छोड़ दिया।
उन्होंने गयकवाड़ के विरूद्ध हथियार न उठाने पर भी सहमति व्यक्त की। सर जॉर्ज बार्लो के प्रयासों से होल्कर ने सन् 1805 में राजपुरघाट की संधि पर हस्ताक्षर किए जिसके तहत मराठा प्रमुखों ने चंबल नदी के उत्तर के क्षेत्रों, बुंदेलखंड पर और कंपनी के अन्य सहयोगियों के अपने दावे को त्याग दिया। राजपुरघाट की इस संधि ने दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध को समाप्त कर दिया।
तीसरा आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818) : सन् 1813 में गवर्नर-जनरल के तौर पर लॉर्ड हेस्टिंग्स के भारत आने के बाद तीसरे और अंतिम आंग्ल-मराठा संघर्ष का आरंभ हुआ। सन् 1817 में पेशवा को पूना की संधि पर हस्ताक्षर करने पड़े जिसके तहत उन्हें मराठा संघ की प्रमुखता को छोड़ना पड़ा और ब्रिटिश नागरिकों के माध्‍यम से उन्हें अन्य राज्यों के साथ संबंधों का संचालन भी करना पड़ा।
पेशवा ने मालवा में अपने अधिकारों के साथ कोंकण और बुंदेलखंड को भी सौंप दिया। ग्वालियर की संधि (1817) दौलत राव सिंधिया के साथ लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा पिंडारियों के विरूद्ध अभियान के लिए तैयारियों के भाग के रूप में की गई थी। इसके परिणामस्वरुप पिंडारी युद्ध का विलय तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध में हो गया।
ब्रिटिश शासन के खिलाफ सभी मराठाओं का विरोध अंग्रेजों के खिलाफ पुनः एकजुट होने के एक और प्रयास के बाद समाप्त हुआ। मराठा प्रमुखों के साथ एक नया समझौता किया गया। पेशवा ने पेंशन के रूप में आठ लाख रुपए के बदले में अपने नाम और अधिकारों को आत्मसमर्पि‍त करके कानपुर के निकट बिथुर में सेवानिवृत्ति ग्रहण की। सातारा के राजा के रूप में शिवाजी के वंशज के लिए एक छोटा जिला सतारा आरक्षित था। शेष पेशवाओं के क्षेत्रों को बॉम्बे के सूबे (प्रेसीडेंसी) में शामिल कर लिया गया।

मराठा परिवार     व        उनके क्षेत्र

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पेशवा                                                            - पूणे
गयकवाड़                                                      - बड़ौदा
भोसले                                                          - नागपुर
होल्कर                                                          - इंदौर
सिंधिया                                                        - ग्वालियर





धन्यवाद..........

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