भारत के प्राचीन राजवंशों में से एक वंश रहा है- वर्धन / पुष्यभूति वंश। जिसके बारे में हम आज इतिहास के पन्नों से कुछ महत्वपूर्ण जानकारी से अवगत होने जा रहे हैं। इस लेख को प्रतियोगिता परिक्षों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। नमस्कार मैं हूँ विनय चलिए कुछ नया सीखते है।
नरवर्धन – राज्यवर्धन – आदित्यवर्धन – प्रभाकर वर्धन – राज्यवर्धन द्वितीय – हर्षवर्धन
कुषाण वंश का इतिहास | शासकों का नाम | महत्वपूर्ण तथ्य
भारत के प्राचीन राजवंशों में से एक वंश रहा है- कुषाण वंश। जिसके बारे में हम आज इतिहास के पन्नों से कुछ महत्वपूर्ण जानकारी से अवगत होने जा ...
वर्धन / पुष्यभूति वंश
वर्धन वंश को गुप्तों के बाद उत्तर भारत में सबसे विस्तृत साम्राज्य माना जाता हैं । इस वंश का उदय हरियाणा के थानेश्वर में हुआ था। बाणभट्ट के अनुसार इस वंश का संस्थापक पुष्यभूति शैव मत का अनुयायी था। परन्तु पुरातात्विक स्त्रोतों में उसका नाम नहीं मिला है। पुरातात्विक स्त्रोतों में वर्धन वंश का पहला शासक नरवर्धन को बताया गया है। इस वंश का इतिहास जानने हेतु बौद्ध ग्रन्थ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प और महाकवि वाण का हर्षचरित्र अत्यंत महत्वपूर्ण है। हर्षचरित्र, कादंबरी, चंडीशतक का लेखक बाण हर्ष का दरबारी कवि था। हर्ष से पूर्व साम्राज्य की राजधानी थानेश्वर थी। हर्ष ने इसे कन्नौज स्थानांतरित किया।
नरवर्धन – राज्यवर्धन – आदित्यवर्धन – प्रभाकर वर्धन – राज्यवर्धन द्वितीय – हर्षवर्धन
प्रभाकर वर्धन
यह प्रतापशील के नाम से विख्यात था। इस वंश के शासकों में सर्वप्रथम महाराजाधिराज की उपाधि प्रभाकरवर्धन ने ही धारण की। इसकी मृत्यु के बाद इसकी पत्नी यशोमती सती हो गयी। यशोमती की तीन संतान थी – राज्यवर्धन, हर्षवर्धन, राज्यश्री। राजयश्री का विवाह मौखरि नरेश ग्रहवर्मा से हुआ था। देवगुप्त ने ग्रहवर्मा की हत्या कर दी और राज्यश्री को बंदी बना लिया।
राज्यवर्धन II nd
इसने परमसौग़ात की उपाधि धारण की। इसने देवगुप्त से बदला लेने के लिए उसकी हत्या कर दी। बाद में देवगुप्त के मित्र गौड़ नरेश शशांक ने राज्यवर्धन द्वितीय की हत्या कर दी। इसके बाद राज्यवर्धन द्वितीय का छोटा भाई हर्षवर्धन शासक बना।
हर्षवर्धन (606-647) AD
हर्षवर्धन को शिलादित्य भी कहा जाता था। इसने शासक बनने के वर्ष से हर्ष संवत की शुरुवात की। इसके सिक्कों पर नंदी पर बैठे शिव का अंकन है जो इसके शैव मत के होने का प्रमाण है। ह्वेनसांग के प्रभाव में इसने बौद्ध धर्म अपना लिया। इसने पूरे राज्य में माँस-भक्षण निषेध कर दिया। कामरूप के शासक भास्करवर्मन ने अपने राजदूत ह्वेनसांग द्वारा हर्ष के पास मैत्री का प्रस्ताव भेजा। ह्वेनसांग ने हर्ष को शिलादित्य के नाम से सम्बोधित किया है। हर्ष के दरबार में उत्तरगुप्त वंशीय शासक माधवगुप्त रहता था। हर्ष ने बौद्ध भिक्षु दिवाकर मित्र की सहायता से विंध्याचल के जंगलों में राज्यश्री को खोजा। इसने चीन के शासक ताइसुंग के दरबार में राजदूत भेजा। हर्ष ने संस्कृत में तीन नाटक – प्रियदर्शिका, रत्नावली, नागानंद लिखे। नागानंद में जीमूतवाहन नामक राजकुमार की आत्महत्या की कहानी है। भूमि देने की सामंती प्रथा की शुरुवात हर्ष ने ही की।
👉हर्ष की विजय
इसके साम्राज्य में कश्मीर को छोड़कर लगभग पूरा उत्तर भारत सम्मिलित था। कश्मीर का शासक दुर्लभवर्धन स्वयं इसे बुद्ध के दांत देकर गया। हर्ष ने कन्नौज में इस पर एक स्तूप बनवाया। इसने कन्नौज के गौड़ीय शासक शशांक को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इसने बल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय को पराजित किया परन्तु बाद में अपनी पुत्री का विवाह ध्रुवसेन से कर दिया। नर्मदा नदी के पास इसका युद्ध चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय से हुआ। इस युद्ध का उल्लेख वाणभट्ट नहीं करता है। परन्तु इसकी जानकारी ऐहोल अभिलेख और ह्वेनसांग की सी-यू-की से प्राप्त होती है। इस युद्ध में हर्षवर्धन की पराजय हुयी।
👉 कन्नौज की धर्म सभा
इस धर्मसभा का अध्यक्ष ह्वेनसांग था। महायान बौद्ध की महत्ता स्थापित करने के लिए यह सम्मलेन बुलाया गया था। इस सभा में 20 देशों के शासक सम्मिलित हुए थे और ये सभा 20 दिन तक चली थी। इस सम्मलेन के बाद हर्ष ने 500 ब्राह्मणों को देश से निष्कासित कर दिया था। इसने उड़ीसा में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए नालंदा बिहार से चार बौद्ध प्रचारकों को भेजा।
👉 प्रयाग की महामोक्षपरिषद
इसके बाद 630 ईo में प्रयाग में महामोक्षपरिषद का आयोजन हुआ। दान देने के उद्देश्य से इसका आयोजन प्रत्येक पांच वर्ष बाद किया जाता था। ये छठा आयोजन था। इसमें ह्वेनसांग और 18 देशों के राजा सम्मिलित हुए। यहीं पर ह्वेनसांग ने हर्ष से चीन बापस लौटने की विदा मांगी।
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